Privatization of Education: 100 में 100 लाकर सीखने की जिज्ञासा हो रही खत्म
Privatization of Education: 100 में 100 लाकर सीखने की जिज्ञासा हो रही खत्म

Privatization of Education , 100 में 100 लाकर सीखने की जिज्ञासा हो रही खत्म
परीक्षा परिणामों का समय नजदीक आते ही शिक्षा व्यवस्था पर सवाल उठने लगते हैं। खासकर, जब सीबीएसई जैसे बोर्ड के परिणाम सामने आते हैं, तो यह सवाल और गहरा हो जाता है कि क्या आज के परीक्षार्थी वास्तव में परीक्षकों से अधिक बुद्धिमान हो गए हैं? गणित और विज्ञान जैसे विषयों के साथ-साथ हिंदी और अंग्रेजी जैसी भाषाओं में भी छात्र शत-प्रतिशत अंक प्राप्त कर रहे हैं।
भाषा में शत-प्रतिशत अंक लाना कोई साधारण बात नहीं है। क्या ये छात्र इतने निपुण हैं कि उन्होंने ह्रस्व ‘इ’ या दीर्घ ‘ई’ में एक भी गलती नहीं की? क्या उन्हें व्याकरण, समास, संधि-विच्छेद, कारक, अलंकार, उपमा, गद्य और पद्य जैसे सभी पहलुओं में पूर्णता हासिल है? यह स्थिति न केवल आश्चर्यजनक है, बल्कि शिक्षा व्यवस्था और इसके निजीकरण (Privatization of Education) पर भी गंभीर सवाल उठाती है।
भाषा का ज्ञान असीमित होता है। शेक्सपियर जैसे महान साहित्यकार ने भी कहा था कि अंग्रेजी भाषा के विशाल ज्ञान के सामने उनका ज्ञान एक रेत के कण के समान है। फिर आज के छात्र, जो हिंदी और अंग्रेजी में पूर्ण अंक ला रहे हैं, क्या वाकई भाषा के हर पहलू में पारंगत हैं? यह स्थिति चिंताजनक है, क्योंकि इससे भाषा का महत्व कम हो सकता है। यदि छात्र यह मानने लगें कि भाषा का ज्ञान इतना आसान है, तो भविष्य में साहित्यकारों, कवियों और उपन्यासकारों की कमी हो सकती है।
भाषा का प्रचार-प्रसार पीढ़ी-दर-पीढ़ी कमजोर पड़ सकता है। विशेष रूप से निजीकरण के दौर में (Privatization of Education), जहाँ अंग्रेजी माध्यम के स्कूल हिंदी भाषा को पहले ही कम महत्व देते हैं, ऐसी मूल्यांकन प्रणाली से हिंदी की महत्ता और भी कम हो रही है।
आज कुछ छात्रों को 500 में 499 या 498 अंक प्राप्त हो रहे हैं। क्या इतने अंक लाना वास्तव में संभव है? भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद की उत्तरपुस्तिका पर परीक्षक ने लिखा था, “परीक्षार्थी, परीक्षक से बेहतर है।” लेकिन आज तो बड़ी संख्या में छात्र परीक्षकों से अधिक योग्य नजर आ रहे हैं। क्या आज के बच्चे तुलसीदास, कबीर, या रसखान जैसे महान भाषाविदों से भी अधिक भाषा के जानकार हो गए हैं? यदि शुद्ध और अशुद्ध उत्तरों को समान अंक मिलते हैं, तो फिर सही उत्तर का क्या मूल्य रह जाता है? अगर पेज गिनकर अंक दिए जाएँ, तो प्रश्नपत्र का औचित्य ही क्या है?
इस स्थिति के लिए छात्र दोषी नहीं हैं, बल्कि दोष हमारी मूल्यांकन प्रणाली और शिक्षा के निजीकरण (Privatization of Education) का है। निजी स्कूलों में शिक्षा का व्यवसायीकरण बढ़ने के साथ ही अंक बांटने की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह प्रणाली केवल अंकतालिका पर केंद्रित हो गई है, जबकि व्यवहारिक ज्ञान और हुनर की उपेक्षा हो रही है। यदि शिक्षा का स्तर इसी तरह गिरता रहा, तो भाषाएँ संकट में पड़ सकती हैं और शिक्षा व्यवस्था चरमरा सकती है। आज भी व्यवहारिकता खत्म होने के कगार पर है। यदि अंकतालिका के बजाय हुनर को महत्व दिया जाए, तो भारत का विकास और तेजी से हो सकता है।
शिक्षा के निजीकरण (Privatization of Education) ने शिक्षा को एक व्यवसाय बना दिया है, जहाँ अंकों की दौड़ में गुणवत्ता गौण हो गई है। शिक्षित व्यक्ति की मानसिकता में शुद्धता आनी चाहिए, लेकिन क्या आज के बच्चे इस दिशा में बढ़ रहे हैं? अभिभावकों और शिक्षकों को इस पर गंभीरता से विचार करना होगा। शिक्षा के निजीकरण (Privatization of Education) के इस दौर में हमें ऐसी प्रणाली की आवश्यकता है जो न केवल अंक दे, बल्कि वास्तविक ज्ञान, नैतिकता और हुनर को भी प्रोत्साहित करे। केवल तभी हम एक सशक्त और सांस्कृतिक रूप से समृद्ध समाज का निर्माण कर पाएँगे।

लेखक:
गगनदीप पारीक
विशेष शिक्षक
शहीद सुमेर सिंह सांखला राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय, झटेरा, नागौर
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